लो सुबह हो गई, फिर भी सूरज ना निकला
रात गुजारी अँधेरे में, आस भरी थी किरणों की दिल में।
गिन गिन के रात कटी, बैरी बनके समय रुक गया
रात भर के अँधेरे में, ना बादल देखा, ना बादलों का ख्वाब देखा।
फिर भी ना उजाले का दर्शन मिला, ना किरणों का दर्शन हुआ
परमप्रेम का दीप जलाया अँधेरे में, वही तो आस बन गई।
खो गया मैं दीप के उजाले में, समझ में ना आया रात कैसे कटी
भरा भरा दिल में, वह ज्योत का प्रकाश फैलते गया।
किरणों की आस का दीप तो दिल में जलता रहा
जब आँख खुली, सूर्य किरणों के दर्शन मिले।
सतगुरू देवेंद्र घिया (काका)