जग में तो यह सब की कहानी है, ना है कोई किसी का,
बड़े दुःख की बात है, सब कहते हैं, मेरा ना है कोई किसी का।
कभी लगे कोई हो गया है अपना, वही दूर रहकर है खेल देखता,
सब तो कहते हैं, प्रभु है सबका, फिर वही जगमें क्यों है चिल्लाता।
जग में सब कुछ तो है होता, फिर भी ना कोई किसी का रहता,
कोई ना कोई बात पर, पड़ता है सबको रोना, ना है कोई किसी का।
जब खुद ही नहीं रहता खुद का, कोई कैसे बनेगा तो किसी का,
हर समय, हर च़ीज है नयी, नयी च़ीज के पीछे रहता है फिरता।
हर कोई बनना चाहता है, किसी का, बन नही पाता किसी का,
ना बदली है यह कहानी, कहानी है सबकी, ना है कोई किसी का।
सतगुरू देवेंद्र घिया (काका)