हजरत आहें क्यों भरते हो, आहें क्यों छिपाते हो?
ले लिया है दर्द ने कब्जा तो, दिलों-दिमाग का
हजरत अब क्यों इस में घबराये लगते हो।
रख दिया है, नयी मंजिल पर तो जब कदम
अब घबराये पीछे, मुड़-मुड के क्यों देखते हो?
लूट गया है वह चैन तुम्हारा, खाना पीना भूल गये हो,
अब यादों ही यादों में, आहें क्यों भरते हो?
जब यह दर्द आपके वश में नहीं, उसके पीछे क्यों दौड़े रहे हो?
मंजिल ही है इस दर्द का मुकाम, बीच-बीच में क्यों रुकते हो?
दीवानों की कमी नही इस जग में, गिनती उनकी क्यों बढ़ाते हो?
सतगुरू देवेंद्र घिया (काका)