आया जग में जब तू बंदे, जंग-ए-ऐलान हो गई,
हर श्वास से जंग खेलना होगा, लो जंग शुरू हो गई।
आया जग में जब तू बंदे, ना कोई पहचान थी,
हर अपरिचित चेहरे में, ढूँढ़ना पड़ा परिचित चेहरा।
कौन अपना कौन पराया, ना सच्ची पहचान मिली,
अकेलापन ना जी को भाया, पहचान बढ़ती गई।
लड़ना पडा गैरों से, जंग अंदर तो चलती रही।
कभी हार मिली, कभी जीत, जंग तो चलती रही।
कभी जोश रहा, कभी जोश टूटा, ना जंग पर असर हुआ,
हर हाल में मैदान निष्कंटक करना था, यह उम्मीद थी।
सतगुरू देवेंद्र घिया (काका)