कहाँ से मैं कहाँ पहुँच गया, ना पता मुझे उसका चला
देखा राह जिस दिन का, चला ना पता, कब आकर कब चला गया?
हुआ कैसे हुआ, पता ना चला, जीवन में वह तो कैसे हुआ?
दुख भी आया, सुख भी आया, अपनी-अपनी याद वह दे गया।
एहसास दिल में दर्द का हुआ, कभी रुका, कभी वह चला गया।
जीवन ने मुझे तो दिया, कुछ तो लिया, फिर भी खाली रह गया।
थी कोशिश तो शुरु, जहाँ पहुँचना था, रुका कैसे, पता ना चला।
विपरीत भाव दिल में जागे कैसे, टिके कैसे, ना उसका पता चला।
रह-रहकर आयी याद उनकी, आयी कैसे, ना उसका पता चला।
सतगुरू देवेंद्र घिया (काका)