रोये रे, रोये रे रोये, जिया रे अब तू काहे को रोये?
किया जग में जब तूने मनमानी, रुके न पैर तब तो तेरे।
रखी न काबू में तूने जब जुबाँन तेरी, आयी मुसीबत जीवन में,
दूर की ना कभी सोची तूने, सामने आकर खड़ी मुसीबतें।
रहा सोचते गलत, जीवन में आया अब परिणाम उसका जीवन में,
करने देखने में ना रखा विवेक तूने, भूल गया विवेक जीवन में।
किया जीवन में आकर जोश में, जीवन में तो सब होश खोकर।
सुख भरे जीवन को, तेरे ही कर्मों ने डाला दुःख की गर्त में।
कई बार खाया धोखा, तूने जीवन में, अब खाया धोखा प्यार में।
सतगुरू देवेंद्र घिया (काका)