खुदा कैसी मुसीबतों में हम हमारी जिंदगानी जी रहे हैं,
वृत्तिओं के प्रवाह में बह के हम वृत्तिओं में खींचे जा रहे हैं।
जीना है जीवन कैसे, भूल के, दुर्गतियों के ओर बह रहे हैं,
खुमारी खो बैठे हैं, जीवन में मुर्दे की तरह जी रहे हैं।
प्रेम खो के जीवन में दिल में बैर को तो बसा रहे हैं
इच्छाओं को बेकाबू बना के, जीवन में इच्छाएँ बढ़ा रहे हैं।
जीवन में गम खोना भूलकर, जीवन में तूफान मचा रहे हैं
जीवन में औरों का आदर करना भूलकर, आदर चाह रहे हैं।
जिंदादिली से जीना छोड़ के, दिल को ठेस पहुँचा रहे हैं,
इन्सान बनकर आये हैं, फिर भी इन्सानियत भूल गये हैं।
सतगुरू देवेंद्र घिया (काका)