सारे जहाँ में मैं तो फिरा, देख के हैरत में तो पड़ गया,
जो नही थे वही वह तो थे बनना चाहता।
जिस हाल में थे वह, ना खुश थे वह, सबके दिल में यह अग्नि जल रहा था,
कर्मों ने रखा था जिस हाल में, ना कोई उस हाल में खुश थे।
ना किसी के दिल में सुख भरा था, सब के दिल दुःख में जल रहे थे,
जिस हाल में थे, नहीं रहना चाहते थे, जो नही थे वह बनना चाहते थे।
थे लड़ते अपने किये के सामने, वही वह बनना चाहते थे,
जिस हाल में थे, ना सुखी समझते थे, नही थे इसमें सुख देख रहे थे।
खोज सब की सुख की थी, फिर भी ना कोई सुखी था,
जीवन में ना कोई सुखी था, सब सुखी बनना चाहते थे।
सतगुरू देवेंद्र घिया (काका)