थी दो मंज़िल मेरे सामने, किस ओर मैं जाऊँ ना पता मुझे चला
चलते रहा मैं यहाँ वहाँ, फिर भी मंज़िल को मेरी, ना मैं पा सका
थी दो मंजिल मेरी आँखों के सामने, किस ओर जाऊँ, ना तय मैं कर सका
थी नज़र तो फिरती यहाँ से वहाँ, फिर भी मेरी मंज़िल का पता ना चला
कहाँ रुकना, कहाँ चलना, ना फैसला उसका जीवन में मैं कर पाया
इंत़जार में बीती रात तो कैसे, ना मुझे इसका तो पता चला
ना दो मंजिल को एक कर पाया जीवन में, उलझन में मैं उलझता रहा
समय की जंजीरों में था बँधा हुआ, मंज़िल की ओर चलना मुश्किल बना दिया
ढूँढ़ते मंज़िल मेरी, बंद कर दी आँखें मैंने मेरी, मंज़िल का पता मुझे मिला
तब दो मंज़िल बन गई एक मेरी, तब मैं रहा, दृश्य ना कोई और रहा
सतगुरू देवेंद्र घिया (काका)