जाने अनजाने वही गुनाह में करता रहा,
आदत की जोर ने तो मुझे, मजबूर बना दिया।
सुबह किया हुआ संकल्प, शाम तक भी ना टिकता,
गिरना, उठना, निस दिन का क्रम बना दिया।
विचारों की आँधियों में पहले से फँस गया
करना पड़ा हर दिन गलतियों का मुझे तो सामना।
ना मैं उसमें बढ़ सका, ना पहाड़ जैसे खड़ा रह सका,
बढ़ती गई कमजोरी, कमजोरियो में, मैं डूबता गया।
देखते हुए भी, अंधा मैं तो बनता ही गया,
इस हाल पर में पहुँच गया, हाल सहन ना कर सका, ना रोक सका।
सतगुरू देवेंद्र घिया (काका)