ना कम ना ज्यादा, ख़बर तो है यह ताजा,
मुक्ति तो है सब तो चाहते, ना जल्दी वह कोई पाता।
आये हैं सब मुक्ति के लिये, वह बात है वह भूल जाता,
माया तो है सब को सताती, जग में ना वह छोड़ पाता।
दिल से आवाज तो है उठती, सुनी ना अनसुनी वह तो करता,
करता है कोशिश, सब जानने की, ना खुद को जान पाया।
कहाँ कहाँ को गया, कहाँ से आया, वह तो ना जान पाया,
हर दिशा में नज़र उसने फिराई, खुद के अंदर ना जा पाया।
ना किया कुछ खुद ने जीवन में, आरोप फिर भी प्रभु पर लगाया,
ना खुद का रहा, ना किसी का बना, ना वह प्रभु का बन पाया।
सतगुरू देवेंद्र घिया (काका)