ढूँढ़ने निकला मैं मुझको, न जाने मैं कहाँ खो गया।
आवाज ना दे सका मैं मुझको, औरों को ना चला कुछ पता,
था मैं अँधेरे में, था उजालों में, ना मुझे था इसका तो पता।
ना थी वहाँ आवाज किसी की, ना सुन सका आवाज मैं मेरी,
न मैं जान सका मैं कहाँ था, किस बीच गलियो में फिरा।
ना यहाँ जग के नजारे थे, ना पहचान वाला तो कोई मिला,
ना कुछ देखा था, ना कुछ सुना था, ऐसे मुकाम पर मैं पहुचाँ था।
ना तन-बदन की कोई गर्मी थी, ना तन-बदन का कोई दर्द था,
अँधेरे-उजाले में से गुजर रहा था, फिर भी मैं तो वहाँ नहीं था।
आँख खुली मैं वही था, जिस खटिये पर तो मैं लेटा था,
चिंतित चेहरे पर रोशनी आ गई, मुख से तो हर्षोल्लास उठा
कान में हर्ष की आवाज सुनी, वहाँ फिर से वापस आ गया।
सतगुरू देवेंद्र घिया (काका)