जैसा सोच रहे आप मुझे, मैं वैसा नही हूँ।
आपकी नज़रों की कठपुतली हूँ ना विचारों की कठपुतली हूँ,
दिल और नज़रों को काबू में रखता हूँ, ना उसे भागने देता हूँ।
चल रहा हूँ मेरे पैरों के बल पर प्रभु बस इतनी माँग करता हूँ,
मेरे पैरों में दे ताकत इतनी, मेरे पैरों से मैं चल सकूँ।
कभी गरम कभी नरम, हर परिवेश में मैं होता हूँ
ना मैं गरम हूँ, ना मैं नरम हूँ, बुद्धि ना किसी के हवाले करता हूँ
सब की बात सुनते भी खुद की बुद्धि से चलता रहता हूँ।
ना था शुरू में ऐसा, संजोगों ने वैसा बना दिया,
ना मैं पापी हूँ ना पुण्यशाली हूँ, बीच की राह पर चलने वाला हूँ।
आया मुक्ति पाने के लिये, ना मुक्त रह सका ना मुक्ति पा सका हूँ,
ना मैं सच्चा हूँ, ना झूठा हूँ, दोनों की बीच की राह पर चलने वाला हूँ।
सतगुरू देवेंद्र घिया (काका)