दिल चुरा के दिल दिया, अहसान तो क्या किया,
यूँ ही दिल देते, तो समझते, कोई कद्रदान मिला।
उम्मीदों के सहारे जी रहे थे, ना उम्मीद क्यों बना दिया,
उम्मीदें कर देते यदि पूरी, समझते कोई कद्रदान मिला।
नज़र छिपा के क्यों ब़ैठे हो, नज़र के सामने रहते भी, नज़र से बाहर रखते हो,
यदि नज़र मिला के कुछ बातें करते, तो समझते कोई कद्रदान मिला।
आगे चलते-चलते, बार-बार नज़र पीछे क्यों फिराते हो?
यदि दूर से भी सलाम करते, समझते कोई कद्रदान मिला।
महलों में सुख में रहते हुए भी, बंदीवान बन के तो ब़ै"s हो
यदि मौज से अकेले भी चलते, समझते स्वतंत्रता का कोई कद्रदान मिला।
सतगुरू देवेंद्र घिया (काका)